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लेखक : अशर्फी लाल मिश्र
अशर्फी लाल मिश्र |
स्वतंत्रता पूर्व राजनीति के मुद्दे दूसरे थे और स्वतंत्रता के बाद दूसरे हो गए। स्वतंत्रता के पूर्व और स्वतंत्रता के बाद लगभग दो दशक तक राजनीति में समाज सेवा का मूल्य सर्वोपरि था।
लगभग सातवें दशक (1960 -1970) के उत्तरार्ध तक राजनीति के मूल्यों में बदलाव आना प्रारम्भ हो गया। अब सत्ता प्राप्ति के हथकंडे प्रारम्भ हो गए। धीरे धीरे दशक 1990 -2000 में कुछ घटिया राजनीतिक हथकंडे अपनाये भी गए। इन घटिया राजनीति के मुद्दों ने सत्ता के द्वार तो खोल दिए लेकिन राष्ट्र को जो क्षति हुई उसकी पूर्ति आज तक संभव न हो सकी ।
आइये अब हम उस घटिया राजनीतिक मुद्दा " शिक्षा में नकल को प्रोत्साहन " पर चर्चा करेंगे:
शिक्षा में नकल को प्रोत्साहन
नकल करना मानव प्रवृत्ति है। अच्छी नकल से अच्छे परिणाम और खराब नकल से खराब परिणाम। करोड़पति व्यक्ति भी यदि किसी दुर्व्यसन की नकल करता है तो खाकपति हो जाता है। सामान्य व्यक्ति यदि लगनशील है तो वह भी उच्च आदर्श को सामने रखकर उच्च श्रेणी का वैज्ञानिक/ प्रोफेसर बन सकता है।
बच्चो में बूढ़ों की अपेक्षा नकल की प्रवृत्ति अधिक देखी जाती है। 1965 के बाद धीरे धीरे छात्रों में नकल की प्रवृत्ति का संचार होने लगा। कुछ शिक्षक भी नकल कराने में अपनी गरिमा समझने लगे।
आइये आज हम उत्तर प्रदेश राज्य में छात्रों में बढ़ती नकल की प्रवृत्ति पर चर्चा करेंगे :
जब उत्तर प्रदेश में सहायता प्राप्त के साथ साथ मान्यता प्राप्त विद्यालयों का प्रचलन बढ़ा। इसी बीच विद्यालय के प्रबंध तंत्रों में छात्रों को अपने-अपने विद्यालय प्रवेश के लिए आकर्षित करने के लिए नकल का सहारा लेना प्रारम्भ हुआ। परिणाम यह हुआ कि मेधावी छात्र मेरिट में पीछे होने लगे और नकलची छात्र बोर्ड और विश्वविद्यालयों में अपना स्थान बनाने में सफल होने लगे। शिक्षा में हो रही इस धांधली रोकने के लिए वर्ष 1992 में तत्कालीन मुख्य मंत्री कल्याण सिंह ने नकल अध्यादेश लागू कर दिया।परिणाम यह हुआ कि उस वर्ष यू पी बोर्ड और राज्य विश्वविद्यालयों के परीक्षा परिणाम बहुत ही निराशा जनक रहे। नकल रुक गई थी और नकल द्वारा अपना अस्तित्व कायम रखने वाले विद्यालयों में निराशा पैदा हो गई थी।
छात्रों, अभिभावकों और शिक्षा माफियाओं में छाये असंतोष के मनोविज्ञान को अध्यापक से राजनीति में आने वाले राजनेता मुलायम सिंह यादव दौड़ कर दोनों हाथों से लपक लिया। बस अब फिर क्या था चूँकि मुलायम सिंह यादव पहले शिक्षक रहे थे वह छात्रों में नकल की प्रवृत्ति और अभिभावकों की में अच्छे अंक पाने की प्रवृत्ति से भली भांति परिचित थे।
नकल अध्यादेश लगने से जहां मुख्य मंत्री कल्याण सिंह अपनी सफलता पर इठला रहे थे वहीं दूसरी ओर सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने नकल अध्यादेश निरस्त करने की घोषणा कर दी। अब केवल अगले चुनाव की देरी थी। जब अगला चुनाव आया तो सपा के घोषणा पत्र (manifesto) में नकल अध्यादेश निरस्त करने का भी उल्लेख किया किया गया तथा मुलायम सिंह यादव ने अपनी चुनाव रैलियों में नकल अध्यादेश निरस्त करने एवं स्वकेंद्र करने का जनता को आश्वासन दिया। नकल अध्यादेश निरस्त करने और स्व केंद्र करने के वायदे को शिक्षा माफिया ,छात्रों एवं अभिभावकों ने जोरदार स्वागत किया। बस फिर क्या था छात्र ,अभिभावक और शिक्षा माफिया गद -गद हो गए। इस प्रकार मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश में सत्ता हथियाने में कामयाब रहे।
नकल अध्यादेश निरस्त होने के परिणाम
नकल अध्यादेश निरस्त करने और स्वकेंद्र करने से उत्तर प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह चौपट हो गई।
उसके बाद से विद्यालयों,महाविद्यालयों में छात्रों की उपस्थिति नगण्य हो गई। शिक्षक भी अनियमित हो गए।अब शिक्षण संस्थाएं केवल प्रवेश और परीक्षा केंद्र के रूप में परिवर्तित हो गए।
उसके बाद जितनी भी सरकारें आईं शिक्षा को पटरी पर लाने में सफल नहीं हो सकीं। मुलायम सिंह यादव के इस राजनीतिक मुद्दे को काटने का अब तक किसी में साहस नहीं हुआ।
आज स्थिति यह है छात्र उन शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश चाहते हैं जहां नकल की या परीक्षा परिणाम की गारंटी हो। आज प्राथमिक विद्यालयों में नाम लिखाने के बाद अभिभावक अपने बच्चों को निजी मान्यता रहित या मान्यता प्राप्त विद्यालयों में पढ़ाना चाहते है।
मुलायम सिंह यादव ने अपने राजनीतिक मुद्दे " नक़ल अध्यादेश समाप्त करने एवं स्वकेंद्र स्थापित करने " से भले ही सत्ता हथिया ली हो लेकिन उत्तर प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था को चौपट करने का श्रेय भी मुलायम सिंह यादव को ही दिया जायेगा। आज तक उत्तर प्रदेश में शिक्षा व्यवस्था पंगु है जिसे पटरी पर लाना टेढ़ी खीर है।
--अशर्फी लाल मिश्र ,शिक्षाविद ,कवि एवं लेखक ।
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