By : Asharfi Lal Mishra
Asharfi Lal Mishra |
1 जनवरी को प्रत्येक वर्ष पुणे के निकट भीमा-कोरेगांव में होने वाला उत्सव भारत के अतीत के गौरव की कहानी नहीं कहता बल्कि अंग्रेजी सेना (ईस्ट इंडिया कंपनी )के दमन की याद दिलाता है।
भारत सैकड़ों वर्षों तक मुस्लिमों और अंग्रेजों की दासता की बेड़ियों में जकड़ा रहा। इस अवधि में बहुत से राजाओं या अन्य लोगों ने विदेशी शासकों की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भारत को गुलाम बनाने में मदद की। ऐसे लोगों की आज स्वतंत्र भारत में किसी भी रूप में प्रशंसा नहीं की जा सकती।
भीमा-कोरेगांव का उत्सव
१ जनवरी १८८८ को पुणे के निकट भीमा-कोरेगांव में अंग्रेजी सेना और पेशवा बाजीराव द्वितीय के बीच युद्ध हुआ था। इस युद्ध में पेशवा बाजीराव पराजित हुए थे। अंग्रेजी सेना (ईस्ट इंडिया कंपनी ) में बड़ी संख्या में दलित जाति के सैनिक सम्मिलित थे। दलित समुदाय ले लोग प्रत्येक वर्ष १ जनवरी को अपनी विजय की स्मृति में उत्सव मानते हैं। [1]
भीमा -कोरेगांव के उत्सव का औचित्य
यह उत्सव वास्तव में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना द्वारा भारतीयों के दमन की ओर संकेत करता है। ईस्ट इंडिया कंपनी ने देश की रियासतों और रजवाड़ों को अपने अधीन करने के लिए सभी तरह के हथकंडे अपनाये। जिन राजाओं ने या फिर जिन सैनिकों ने भारत के विरुद्ध युद्ध में भाग भाग लिया हो उन राजाओं या सैनिकों की बहादुरी का स्वतंत्र भारत में क्या मूल्य। विदेशी सेना के विजयोत्सव का भारत में होना ही नहीं चाहिए।
अभिमत
किसी भी रूप में भारतीयों के दमन की प्रशंसा या उत्सव का भारत में निषेध होना चाहिये।
अभिमत
किसी भी रूप में भारतीयों के दमन की प्रशंसा या उत्सव का भारत में निषेध होना चाहिये।
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