रविवार, 28 जनवरी 2018

केंद्रीय विद्यालयों में होने वालो प्रार्थना राष्ट्रीयता से ओतप्रोत

Asharfi Lal Mishra









                                                                         
                                                           भारत का उच्चतम न्यायालय
  केंद्रीय विद्यालयों में होने वालो प्रार्थना राष्ट्रीयता से ओतप्रोत है। यह प्रार्थना  वर्तमान  सरकार ने प्रारम्भ नहीं की बल्कि  जब से केंद्रीय विद्यालयों की स्थापना हुई थी तब से लेकर आज तक हो रही है।

               प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल में १५ दिसंबर १९६३ को केंद्रीय विद्यालय संगठन की स्थापना हुई थी उस समय मोहम्मद करीम  छागला शिक्षा मंत्री थे। तब  से लेकर आज तक केंद्रीय विद्यालयों में होने वाली प्रार्थना पर किसी ने प्रश्न चिन्ह खड़ा नहीं किया। लेकिन वर्तमान में भारत के उच्चतम न्यायालय में  सेक्युलर वादियों ने कलुषित भावना के साथ  एक याचिका के माध्यम से केंद्रीय विद्यालयों में होने वाली प्रार्थना को रोकने के  लिए याचिका दाखिल  की है और इस याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार भी कर लिया है।
                                                                   
                                         
                                                           केंद्रीय विद्यालय में प्रार्थना
              
इस याचिका में कहा गया है कि हिंदी /संस्कृत में होने वाली प्रार्थना से छात्रों में हिंदुत्व की भावना जाग्रत होती है। हमारा  मानना है कि  प्रार्थना  में  अन्तर्निहित भाव क्या है उसके  आधार  पर ही गुण -दोष पर विचार  जाना चाहिए।  विद्यालय में होने  वाली प्रार्थना का उद्देश्य छात्रों में  उत्तम चरित्र   निर्माण एवं  राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत करना है.
                  जहाँ तक   भाषा का प्रश्न आता  है  तो क्या हिन्दी और संस्कृत को भारत से या फिर भारतीय संस्कृति को हिन्दी /संस्कृत  से  अलग किया जा सकता है ? संस्कृत भारत की आत्मा है और हिंदी भारत की राष्ट्र भाषा। हिंदी और संस्कृत भाषाएँ दोनों ही भाषाएँ भारत के लोगों को एक सूत्र में पिरोती हैं।
                                                                       
                    क्या संस्कृत में अंकित  राष्ट्रीय चिन्ह अशोक स्तम्भ से  सत्यमेव जयते हटा दिया जायेगा ?  क्या लोक सभा मण्डप में अध्यक्ष के आसन के पीछे अंकित धर्म चक्र प्रवर्तनाय हटा दिया जायेगा ?  क्या शिक्षण संस्थानों में बहुधा अंकित किया गया तमसो माँ ज्योर्तिगमय  हटाने कहा जायेगा ?

            यही नहीं भारत के सुप्रीम कोर्ट के परिसर में प्रधान न्यायाधीश के कक्ष के निकट यतो धर्मस्य ततो जयः अंकित है।

अभिमत 
* भारत को एक सूत्र में पिरोने वाली , चरित्र निर्माण करने वाली ,सबके कल्याण के भावना वाली प्रार्थना होनी चाहिए
*  प्रार्थना के लिए राष्ट्र भाषा हिंदी  और  भारतीय संस्कृति  को संजोने  वाली  भाषा संस्कृत से  अच्छी कोई भाषा नहीं  हो सकती।

शुक्रवार, 12 जनवरी 2018

सुप्रीम कोर्ट के जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस :ऐतिहासिक

Blogger: Asharfi Lal Mishra

Asharfj Lal Mishra









  
Updated on 13/01/2018                                                                             

जस्टिस  कुरियन जोसेफ, वरिष्ठतम जस्टिस चेल्मेश्वर ,जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस मदन लोकूर [1]                           
१२ जनवरी २०१८ को सुप्रीम कोर्ट के चार जजों द्वारा की गई  प्रेस कॉन्फ्रेंस स्वयं में ऐतिहासिक है। इससे एक बात अवश्य लक्षित होती है कि सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जजों में  कुछ असंतोष अवश्य है लेकिन न्यायपालिका की गरिमा  को देखते हुए  माननीय  जजों को  प्रेस कॉन्फ्रेंस से बचना चाहिए था। इससे  न केवल न्यायपालिका वल्कि  प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वाले जजों की प्रतिष्ठा में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई। इससे जनता में भी कोई अच्छा सन्देश भी नहीं गया। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस से   वकीलों और राजनेताओं में खेमा बंदी को बल मिलेगा।
   
           इस प्रेस कॉन्फ्रेंस  से ऐसा सन्देश  जनता में गया कि सुप्रीम कोर्ट में    सी  जे आई  अपने विवेकानुसार  पीठों  का निर्धारण करते हैं। वरिष्ठ जजों को वरीयता नहीं देते जब कि  कार्य संपादन में शक्तियां समान हैं।   

अभिमत 
  प्रेस कॉन्फ्रेंस  करने वाले   माननीय जजों को सुप्रीम कोर्ट  की  गरिमा   बनाये  रखने के लिए  आपस   में बैठ कर  असंतोष के बिंदु को   हल  कर लेना चाहिए। 


रविवार, 7 जनवरी 2018

भीमा-कोरेगांव का उत्सव : एक जातीय उन्माद

Asharfi Lal Mishra











1 जनवरी को  प्रत्येक वर्ष  पुणे के निकट भीमा-कोरेगांव  में होने वाला उत्सव  भारत  के  अतीत  के गौरव की कहानी नहीं  कहता बल्कि अंग्रेजी सेना (ईस्ट इंडिया कंपनी )के  दमन  की  याद दिलाता है।

     भारत  सैकड़ों वर्षों तक  मुस्लिमों और अंग्रेजों की  दासता की बेड़ियों में जकड़ा रहा। इस  अवधि में बहुत से राजाओं या अन्य लोगों ने  विदेशी शासकों की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से  भारत को गुलाम बनाने में मदद की। ऐसे लोगों  की आज स्वतंत्र भारत में किसी भी रूप में  प्रशंसा नहीं की जा सकती। 

भीमा-कोरेगांव का उत्सव 

१  जनवरी १८८८  को  पुणे के  निकट भीमा-कोरेगांव में  अंग्रेजी सेना और पेशवा बाजीराव द्वितीय के बीच युद्ध हुआ था। इस युद्ध में पेशवा बाजीराव पराजित हुए थे। अंग्रेजी सेना (ईस्ट इंडिया कंपनी ) में बड़ी संख्या  में दलित जाति  के सैनिक सम्मिलित थे।  दलित समुदाय ले लोग  प्रत्येक वर्ष १ जनवरी को  अपनी विजय की स्मृति में उत्सव मानते हैं। [1]

भीमा -कोरेगांव  के उत्सव का औचित्य 

यह उत्सव वास्तव में   ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना  द्वारा  भारतीयों  के  दमन की ओर संकेत  करता  है। ईस्ट इंडिया कंपनी  ने  देश  की    रियासतों  और रजवाड़ों को  अपने अधीन करने के लिए  सभी तरह के हथकंडे  अपनाये।  जिन राजाओं ने या फिर जिन सैनिकों ने  भारत के विरुद्ध युद्ध में भाग  भाग लिया हो उन राजाओं या सैनिकों  की बहादुरी का स्वतंत्र भारत में क्या मूल्य।  विदेशी सेना के  विजयोत्सव का  भारत में होना ही नहीं चाहिए।

अभिमत 

किसी भी रूप में भारतीयों  के दमन की प्रशंसा या उत्सव   का  भारत में निषेध होना चाहिये।  


अनर्गल बयानबाजी से कांग्रेस की प्रतिष्ठा गिरी

 ब्लॉगर : अशर्फी लाल मिश्र अशर्फी लाल मिश्र कहावत है कि हर ऊँचाई के बाद ढलान  होती है । ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने में कांग्रेस ने जनता ...