ब्लॉगर : अशर्फी लाल मिश्र
सोमवार, 13 मार्च 2023
सोमवार, 30 जनवरी 2023
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग
-- अशर्फी लाल मिश्र
अशर्फी लाल मिश्र |
भारत एक लोकतांत्रिक देश है यहाँ प्रत्येक भारतीय नागरिक को सरकार की आलोचना करने का अधिकार प्राप्त है ।
परन्तु देखने मेरे आ रहा है कि कुछ राजनेता जब सरकार की आलोचना करते करते थक जाते हैँ या उन्हें आलोचना करने का कोई उचित विषय नहीँ मिलता तब उनकी दृष्टि भारत में सृजित साहित्य की ओर जाती है ।
साहित्य समाज का दर्पण है
भाषा कोई भी हो लेकिन उस भाषा में सृजित साहित्य समाज का या तो साक्षात्कार कराता है या फिर उसकी भाषा अलंकारिक हो जाती है लेकिन उसका उद्देश्य कल्याणकारी ही होता है । समग्र रूपेण हम कहना चाहेंगे कि साहित्य तत्कालीन समाज का प्रत्यक्ष दर्शन कराता है । साहित्य सृजन स्वतंत्र होता है जब कि इतिहास लेखन सत्ता से प्रेरित एवं उसके सापेक्ष होता है।
साहित्य की आलोचना
किसी राष्ट्र की सांस्कृतिक धरोहर ग्रंथों के रूप में ही संरक्षित होती है और उनके माध्यम से ही प्राचीन सांस्कृतिक विरासत का हमें ज्ञान होता है। प्राचीन ग्रंथ हमें प्राचीन संस्कृति का ज्ञान कराते है।
ग्रंथ हमारी राष्ट्रीय सांस्कृतिक धरोहर हैं उनकी आलोचना करना राष्ट्र की आलोचना के समान हैँ ।
इधर देखने में आ रहा है कि कुछ दिग्भ्रमित राजनेता वोट बैंक को दृष्टिकोण में रखकर विश्व प्रसिद्ध महाकाव्य रामचरितमानस की कटु आलोचना करने से नहीं चूके । रामचरितमानस हिन्दी हिन्दीसाहित्य का न केवल महाकाव्य बल्कि लोकग्रन्थ भी है उसकी आलोचना करना लोक / राष्ट्र का अनादर भी है । इन राज नेताओं यहाँ तक कहना कि कुछ अंश हटा दिया जाय तब वह ग्रन्थ उसी प्रकार अधूरा हो जायेगा जैसे किसी के चेहरे से उसकी नाक काट कर अलग कर दी जाय और फिर उसके चेहरे को देखा जाय ।
बौद्ध धर्मावलंबी स्वामीप्रसाद मौर्य [1 ]और चन्द्र शेखर यादव[2] की रामचरितमानस पर छुद्र टिप्पणी खेद जनक है ।
मानस की महत्ता
रामचरितमानस की महत्ता किसी के आलोचना करने से भी कम नहीं हो सकती । रामचरितमानस न केवल महाकाव्य है बल्कि एक ऐसा लोकग्रंथ है जो हर व्यक्ति के दिल में समाया हुआ है।
मानस एक ऐसा ग्रंथ है जिसकी प्रत्येक पंक्ति समाज को दिशा देती है । इसकी महत्ता इसी बात से जानी जा सकती है कि मुगल काल और ब्रिटिश काल मे जब आम जनता त्रस्त और व्याकुल थी , तब मानस से ही उसे समाज धर्म का एवं कर्तव्य का बोध होता था ।
हाँ यदि किसी में सामर्थ्य है तो रामचरितमानस से उत्कृष्ट कोटि का महाकाव्य जनता को पढ़ने के लिए उपलब्ध कर सकता है ।
सामाजिक ताना बाना छिन्न भिन्न करने का कुत्सित प्रयास
इधर देखने में आ रहा है कि कुछ राजनेता समाज में विद्वेष फैलाकर जातीय संघर्ष कराना चाह रहे हैँ, यह लोकतंत्र का सबसे घृणित रूप है । आजादी के 76 वर्ष बाद देश में जातिवादी विषमता की जो खाई धीरे धीरे समापन की ओर जा रही थी , उसे सत्ता के लोभी ,सामाजिक समरसता के विध्वंसक राजनेता समाज में जातिवाद की जड़ों को पुनः सिंचित करने लगते हैं। इन्हे समाज सेवक न कह कर समाज भंजक कहना चाहिए। ऐसे सत्ता लोभी, समाज भंजक राजनेताओं को जब कुछ नहीं मिला तो अपनी भारतीय सांस्कृतिक धरोहर पर ही हमला करना शुरू कर दिया ।
विश्व में सभी धर्मों के लोग अपनी सांस्कृतिक धरोहर को बचाने के लिए सदैव प्रयास रत रहते हैं लेकिन अफसोस है भारतीय लोकतन्त्र में कुत्सित मानसिकता एवं सत्ता लोभ के कारण कुछ सिरफिरे राजनेता भारतीय संस्कृति पर हमला करने से नहीं चूक रहे हैं।
अभिमत
1- राज नेताओं से अपेक्षा की जाती है कि वे राष्ट्र की सांस्कृतिक धरोहर को संजोकर रखने वाले ग्रंथों की आलोचना करने से अपने को दूर रखें।
2- रामचरितमानस जैसे ग्रंथों की आलोचना से जनता में जातीय संघर्ष की भी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
लेखक : अशर्फी लाल मिश्र
सोमवार, 9 जनवरी 2023
जातीय जनगणना राष्ट्रीय प्रगति में बाधक
ब्लॉगर - अशर्फी लाल मिश्र
अशर्फी लाल मिश्र |
आज जन संख्या की दृष्टि से भारत का स्थान विश्व में प्रथम है।[a]
सजग लोगों ने स्वयं ही अपने परिवार को सीमित कर लिया जब कुछ जातियों के लोग जनसंख्या को वोट बैंक मानते रहे ।उनका तर्क रहा कि जनसंख्या के अनुपात में सत्ता एवं आरक्षण में भागीदारी सुनिश्चित होगी। ऐसे लोग ही सदैव जातीय जनगणना की मांग कर रहे है।
कभी समाज में जातीय भेद भाव था परन्तु आज यही जातीय भेद भाव राजनीति का सशक्त अस्त्र बन गया है । संविधान की मूल भावना है कि समाज में जातीय विषमता की खाई धीरे धीरे समाप्त हो । आज सार्वजनिक स्थानों पर कहीं भी जातीय विषमता या भेद भाव नजर नहीं आता है । हाँ आर्थिक विषमता अवश्य है
छोटा परिवार सुख का आधार
एक समय था जब यह माना जाता था कि अधिक जनसंख्या भी देश की गरीबी का एक कारण है अतः सरकार का नारा था कि " छोटा परिवार सुख का आधार "
इस स्लोगन की ओर शिक्षित लोगों का ध्यान गया और वे इस ओर अग्रसर भी हुए जो बाद में समाज में नव समृद्ध हो गए। इसके विपरीत कुछ लोग वोट बैंक समृद्धि के लिहाज से या यों कहिए सत्ता पाने के उद्देश्य से बड़ा परिवार शक्ति का आधार मानते रहे।
इस प्रकार हम देखते हैं कि भारत में समाज की दो धाराऐं चल पड़ीं:
1-छोटा परिवार सुख का आधार
2- बड़ा परिवार शक्ति का आधार
दूसरे स्लोगन ,"बड़ा परिवार शक्ति का आधार " को अपनाने वाले लोग आज समाज में आर्थिक एवं शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े गये लेकिन वोट बैंक की शक्ति के आधार पर सत्ता में, प्रशासन में भागीदारी चाहते हैं ऐसे लोग ही भारत में जातीय जन गणना चाहते हैं।
जातीय जनगणना विकास में बाधक
1-स्वतंत्रता के बाद जिन जातियों को वोट बैंक माना गया वे सभी जातियां आज आर्थिक एवं शैक्षिक दृष्टि से पिछड़ी हुई हैं। उदाहरण के लिए अल्प संख्यक (मुस्लिम सुन्नी वर्ग) , अनुसूचित (जाटव को छोड़कर) एवं अनुसूचित जनजाति।
2- जहां बात ओबीसी की आती है उसमें कुछ जातियां जैसे अहीर (यादव, ग्वाला), कुर्मी (कटियार, सचान, गंगवार,पटेल) बहुत ही हर दृष्टि से समुन्नत हैं लेकिन आरक्षण के कारण ये जातियां भी जातीय जनगणना की समर्थक है।
3-सत्ता और प्रशासन में भागीदारी की भावना (आरक्षण) के कारण प्रत्येक व्यक्ति बड़े परिवार को बढ़ावा देगा जिससे देश की प्रगति अवरुद्ध होगी ।
4- बड़े परिवार को प्रोत्साहन मिलेगा,देश का विकास अवरूद्ध होगा, गरीबी बढ़ेगी।
जातीय जनगणना तकनीकी दृष्टि से मुश्किल कार्य
1-आज कस्बों और नगरों में रहने वालों की असली जाति का पता लगाना लोहे के चने चबाना है ।
2- आज लोग अपने मूल स्थान से बाहर कहीं निवास करने पर अपनी जाति बदल कर निवास कर हैं।
3- आरक्षण का लाभ पाने के लिए लोग अपनी जाति बदल रहे हैं।
4- अब हम कुछ बदली जातियों के उदाहरण दे हैं जैसे:
अ - चौहान - सामान्य और अनूसूचित दोनों लिखते हैं।
ब - राठौर - सामान्य और पिछड़े वर्ग के लोग लिखते हैं।
स - गौतम - सामान्य और अनूसूचित दोनों लिखते हैं।
द - गोयल - सामान्य और अनूसूचित दोनों लिखते हैं।
इ शर्मा - सामान्य और पिछड़े वर्ग के लोग लिखते हैं।
आदि आदि अनेक शब्द बहु जाति सूचक हैं।
महा नगरों में जाति का पता लगाना मुश्किल
एक नगर से दूसरे नगर में निवास करने पर एकल परिवार की जाति का पता लगाना मुश्किल कार्य।
जाति का प्रमाणीकरण
अब प्रश्न उठता है कि जाति का प्रमाणीकरण कौन करेगा ? गांवों में प्रधान , लेखपाल आदि तो क्या इसमें भ्रष्टाचार नहीं होगा?
कस्बों, नगरों , महानगरों में सभासद, विधायक , सांसद जाति प्रमाणित करेंगे तो क्या उक्त सभी लोग सब लोगों की जाति से परिचित हैं ।निश्चित ही जाति प्रमाणीकरण में घोर भ्रष्टाचार संभावित है।
Updated on 11/01/2023
बिहार में जातीय जनगणना
बिहार में जातीय जनगणना प्रारम्भ हो गई जिसकी रोक के लिए 11 जनवरी 2023 को S C में याचिका दाखिल हुई ।[1]
अभिमत
1- जनसंख्या की गणना में आर्थिक , शैक्षिक पहलू एवं व्यवसाय शामिल किया जाना चाहिए।
2- जातीय जनगणना राष्ट्रीय विकास में बाधक होगी।
3- आरक्षित वर्ग में समुन्नत जातियों को रेखांकित किया जाना चाहिए।
4- राजनीति भी व्यवसाय है अतः व्यवसाय में राजनीति भी लिखी जानी चाहिए ।
Author -Asharfi Lal Mishra
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