शुक्रवार, 7 दिसंबर 2018

दलित शब्द केवल राजनीतिक अस्त्र


Asharfi Lal Mishra










      दलित  शब्द से हमारा तात्पर्य है कि जो व्यक्ति समाज में शोषित हो , दबा हो ,कुचला हो , जिसको समाज में बराबरी के  जीने का अधिकार न हो  और जिसे अपनी योग्यता के अनुसार स्थान पाने का अधिकार न हो , वही दलित है।

           दलित शब्द एक राजनीतिक विचारधारा है जाति  नहीं।

        देश में जब  राजतन्त्र /मुस्लिम शासन  /ब्रिटिश शासन था तब व्यवसाय के वर्गीकरण के आधार पर  जातियाँ  थीं लेकिन  दलित शब्द किसी के लिए स्तेमाल नहीं होता था। कुछ लोग अस्वच्छ पेशे में थे और स्वच्छता का अभाव था इसलिए  उन्हें अस्पृश्य कहा जाने लगा।
 
         योग्यता का समाज में सदैव आदर हुआ है जाति का नहीं। संत रविदास (रैदास) पेशे से चर्मकार थे लेकिन अपनी योग्यता (कर्म निष्ठा और ज्ञान )के बल पर सम्पूर्ण भारत में आदरणीय थे और आज भी आदरणीय हैं।
                         
                                                                       
      संत कबीर पेशे से वस्त्र बुनकर थे लेकिन अपनी योग्यता (साक्ष्य ,आध्यात्मिक ज्ञान ) के बल पर सम्पूर्ण समाज में आदरणीय थे और आज भी हैं और कबीर के न चाहते हुए भी असंख्य प्रशंसक और अनुगामी बने।    


         भीमराव राम जी आम्बेकर के पिता सेना में अधिकारी थे और स्वयं बी आर आम्बेडकर ने  कोलम्बिया विश्वविद्यालय ,संयुक्त राज्य अमेरिका से पी एच डी की उपाधि प्राप्त की थी। ये  स्वतंत्र भारत के  प्रथम कानून मंत्री  और भारतीय  संविधान निर्माण की प्रारूप समिति  के अध्यक्ष थे। इन्होंने अपनी योग्यता के बल पर स्वतंत्र भारत में सम्मान पाया।

          क्या आप  कबीर ,  रविदास और बी आर आम्बेकर को दलित कहेंगे?  हमारे विचार से ये तीनों ही   व्यक्ति संत कबीर , संत रविदास और डॉ आम्बेकर दलित नहीं थे। कबीर ने  लैकिक और   आध्यात्मिक ज्ञान को अपनी  काव्य शैली से  लोगों को मन्त्र मुग्ध कर दिया जिससे वे समाज में आदरणीय थे और आज भी हैं।  संत रविदास ने अपने  ज्ञान रुपी अमृत वर्षा से सम्पूर्ण भारत में आदर पाया वहीँ डॉ आम्बेडकर ने सामाजिक,शैक्षिक  और आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों को भारतीय संविधान में सूचिबद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इन्हीं  जातियों को ही अनुसूचित जाति  कहा गया।

             आज राजनीति में  दलित शब्द एक राजनीतिक मिसाइल के तौर स्तेमाल किया जाता है इसे हर कीमत पर बन्द किया जाना चाहिए।

          अगर पेशे से जाति का सम्बन्ध है और जाति का दलित से , तो क्या सम्पूर्ण सफाई कर्मचारी पेशे के अनुसार अनुसूचित जाति में गिने जायेंगे।

       आज उत्तर प्रदेश में प्रत्येक गांव में प्रत्येक जाति  के सफाई कर्मचारी है।  हम उन राजनेताओं  से पूँछना चाहते हैं जो अपनी राजनीति  चमकाने के लिए या  वर्ग विशेष के मसीहा बनाने का झंडा ऊँचा करते है तो क्या  इन सम्पूर्ण सफाई  कर्मचारियों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिलाएंगे?

     आज भारत लोकतान्त्रिक गणतंत्र राष्ट्र है। यहाँ सभी को सामान अधिकार प्राप्त हैं किसी के साथ कोई भेद भाव नहीं। समाज में न कोई शासक है न कोई शोषित और न कोई दलित। प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता  और क्षमता के बल पर पद को प्राप्त करने में स्वतंत्र है।
 
     स्वतंत्र भारत में अपनी योग्यता के बल पर मायावती उत्तर प्रदेश की तीन बार मुख्य मंत्री , के आर नारायणन और रामनाथ कोविंद भारत के राष्ट्रपति तथा मीरा कुमार लोकसभा की स्पीकर बनीं। क्या ये सभी दलित हैं ? नहीं ये सभी अपनी योग्यता एवं क्षमता के आधार पर पदासीन हुए।


 हमारा अभिमत है की राजनेताओं को  अपने भाषण में  /लेखनी से वर्ग विशेष की  भावनाओं को उद्वेलित करने के लिए दलित शब्द का स्तेमाल नहीं करना चाहिए। 

शनिवार, 24 फ़रवरी 2018

राजनीतिक शुचिता के अभाव में बढ़ रहा भ्रष्टाचार

  Blogger: Asharfi Lal MIishra

Asharfi Lal Mishra










           आज भारत की गणना विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में की जाती है। लोकतंत्र की सफलता देश  के राजनेताओं  की आर्थिक ,सामाजिक आदि की शुचिता पर निर्भर करती है।
             
             लोकतंत्र में शासन की बागडोर  जनता द्वारा निर्वाचित व्यक्तियों के हाथों  होती है। अतः यह भी आवश्यक है कि ये जन प्रतिनिधि उत्तम चरित्र के हों और  जिन पर  जनता किसी प्रकार के आपराधिक चरित्र की ओर  अंगुली उठा न सके। जनता अपने राजनेताओं का अनुकरण भी करती है। इसीलिए कहा भी गया है कि  " जैसे राजा वैसी प्रजा " 
                 क्या भ्रष्ट राजनेता नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर कर सकता है ?  
                                                                       

                                             
       आज हर राजनीतिक दल में  आपराधिक  रिकॉर्ड वाले  व्यक्ति  या तो जन प्रतिनिधि हैं  या फिर  दल में पदाधिकारी।  कोर्ट से ऐसे जन प्रतिनिधियों के विरुद्ध  निर्णय आने में इतना विलम्ब हो जाता है कि  निर्णय का प्रभाव भी  इन्हें चुनाव से वंचित नहीं करता।  सुप्रीम  कोर्ट ने   भी  जन प्रतिनिधियों के लम्बित मुक़दमों  की   शीघ्र  सुनवाई के लिए  विशेष अदालतें गठित  करने  के केंद्र सरकार को निर्देशित किया। परिणाम स्वरूप केंद्र सरकार ने  जन  प्रतिनिधयों से  सम्बंधित  वादों   को  निपटाने के लिए १२ अदालतों का गठन किया है  जो वादों को देखते हुए अदालतों की संख्या कम है।[1] आज भी सांसदों और विधायकों के विरुद्ध 1097 आपराधिक मुक़दमे विभिन्न अदालतों में लम्बित हैं जो चिंताजनक हैं 1(a)

     
             राजनीतिक शुचिता बनाये रखने के उद्देश्य से सांसदों ,विधायकों एवं विधान परिषद् सदस्यों  के उम्मीदवारों के लिए अपनी ,पत्नी और बच्चो की आय का विवरण देने का विधान है लेकिन आय के स्रोत का उल्लेख  करने का नियम नहीं था। दिनांक  १६ फरवरी  २०१८  को भारत के सुप्रीम कोर्ट  ने  चुनाव   में खड़े होने वाले सभी उम्मीदवारों को अपनी एवं अपने परिवार के सदस्यों की आय का स्रोत बताना अनिवार्य कर दिया। [2]
            महत्वपूर्ण बात यह है कि जब तक  राजनेताओं में  शुचिता  का भाव उत्पन्न नहीं होगा तब तक विभिन्न संस्थाओं और  नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर करना असंभव है। राजनीतिक भ्रष्टाचार तो   टिकट  वितरण से  ही  प्रारम्भ  हो  जाता है। उम्मीदवार की आर्थिक सम्पन्नता  प्रथम श्रेणी की योग्यता आंकी जाती है और इसी योग्यता को प्राप्त करने के लिए उम्मीदवार धनार्जन के अवांछित रास्ते अपनाता है।

                  आज राजनीति धन बल के आधीन है। धन बल का सहारा लेकर कोई भी व्यक्ति  विना  सामाजिक कार्य के अनुभव के  संसद या विधान सभा में पहुँच  सकता है।

सांसदों और विधयकों के विरुद्ध  लम्बित मुकदमे 

* सांसदों और विधायकों की संख्या : 1765, कुल मुक़दमे - 3045 [2a]

राज्यवार मुकदमों की स्थिति 
      (वरीयता क्रम में )

  1. उत्तर प्रदेश  :  सांसद + विधायक =248 , लंबित मुकदमे =539 [2b]
  2. तमिलनाडु 
  3. बिहार 
  4. पश्चिम बंगाल 
  5. आंध्र प्रदेश  
  6. अन्य 



भ्रष्टाचार में जेल में निरुद्ध  किये गए राजनेता 

  1. ओम प्रकाश चौटाला 
  2. शशिकला 
  3. लालू प्रसाद यादव [2c]

विश्व  में भ्रष्टाचार की सूची में भारत 
                  ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल के अनुसार  भारत में  60 %  क्षेत्र भ्रष्टाचार  से ग्रसित है। मीडिया की स्थित सबसे अधिक दयनीय। [3]

सांसदों और विधायकों के विरुद्ध लंबित मुकदमे 


     अभिमत 
* राजनीतिक शुचिता के अभाव में  भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना  कठिन।           

रविवार, 28 जनवरी 2018

केंद्रीय विद्यालयों में होने वालो प्रार्थना राष्ट्रीयता से ओतप्रोत

Asharfi Lal Mishra









                                                                         
                                                           भारत का उच्चतम न्यायालय
  केंद्रीय विद्यालयों में होने वालो प्रार्थना राष्ट्रीयता से ओतप्रोत है। यह प्रार्थना  वर्तमान  सरकार ने प्रारम्भ नहीं की बल्कि  जब से केंद्रीय विद्यालयों की स्थापना हुई थी तब से लेकर आज तक हो रही है।

               प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल में १५ दिसंबर १९६३ को केंद्रीय विद्यालय संगठन की स्थापना हुई थी उस समय मोहम्मद करीम  छागला शिक्षा मंत्री थे। तब  से लेकर आज तक केंद्रीय विद्यालयों में होने वाली प्रार्थना पर किसी ने प्रश्न चिन्ह खड़ा नहीं किया। लेकिन वर्तमान में भारत के उच्चतम न्यायालय में  सेक्युलर वादियों ने कलुषित भावना के साथ  एक याचिका के माध्यम से केंद्रीय विद्यालयों में होने वाली प्रार्थना को रोकने के  लिए याचिका दाखिल  की है और इस याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार भी कर लिया है।
                                                                   
                                         
                                                           केंद्रीय विद्यालय में प्रार्थना
              
इस याचिका में कहा गया है कि हिंदी /संस्कृत में होने वाली प्रार्थना से छात्रों में हिंदुत्व की भावना जाग्रत होती है। हमारा  मानना है कि  प्रार्थना  में  अन्तर्निहित भाव क्या है उसके  आधार  पर ही गुण -दोष पर विचार  जाना चाहिए।  विद्यालय में होने  वाली प्रार्थना का उद्देश्य छात्रों में  उत्तम चरित्र   निर्माण एवं  राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत करना है.
                  जहाँ तक   भाषा का प्रश्न आता  है  तो क्या हिन्दी और संस्कृत को भारत से या फिर भारतीय संस्कृति को हिन्दी /संस्कृत  से  अलग किया जा सकता है ? संस्कृत भारत की आत्मा है और हिंदी भारत की राष्ट्र भाषा। हिंदी और संस्कृत भाषाएँ दोनों ही भाषाएँ भारत के लोगों को एक सूत्र में पिरोती हैं।
                                                                       
                    क्या संस्कृत में अंकित  राष्ट्रीय चिन्ह अशोक स्तम्भ से  सत्यमेव जयते हटा दिया जायेगा ?  क्या लोक सभा मण्डप में अध्यक्ष के आसन के पीछे अंकित धर्म चक्र प्रवर्तनाय हटा दिया जायेगा ?  क्या शिक्षण संस्थानों में बहुधा अंकित किया गया तमसो माँ ज्योर्तिगमय  हटाने कहा जायेगा ?

            यही नहीं भारत के सुप्रीम कोर्ट के परिसर में प्रधान न्यायाधीश के कक्ष के निकट यतो धर्मस्य ततो जयः अंकित है।

अभिमत 
* भारत को एक सूत्र में पिरोने वाली , चरित्र निर्माण करने वाली ,सबके कल्याण के भावना वाली प्रार्थना होनी चाहिए
*  प्रार्थना के लिए राष्ट्र भाषा हिंदी  और  भारतीय संस्कृति  को संजोने  वाली  भाषा संस्कृत से  अच्छी कोई भाषा नहीं  हो सकती।

शुक्रवार, 12 जनवरी 2018

सुप्रीम कोर्ट के जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस :ऐतिहासिक

Blogger: Asharfi Lal Mishra

Asharfj Lal Mishra









  
Updated on 13/01/2018                                                                             

जस्टिस  कुरियन जोसेफ, वरिष्ठतम जस्टिस चेल्मेश्वर ,जस्टिस रंजन गोगोई और जस्टिस मदन लोकूर [1]                           
१२ जनवरी २०१८ को सुप्रीम कोर्ट के चार जजों द्वारा की गई  प्रेस कॉन्फ्रेंस स्वयं में ऐतिहासिक है। इससे एक बात अवश्य लक्षित होती है कि सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जजों में  कुछ असंतोष अवश्य है लेकिन न्यायपालिका की गरिमा  को देखते हुए  माननीय  जजों को  प्रेस कॉन्फ्रेंस से बचना चाहिए था। इससे  न केवल न्यायपालिका वल्कि  प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वाले जजों की प्रतिष्ठा में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुई। इससे जनता में भी कोई अच्छा सन्देश भी नहीं गया। इस प्रेस कॉन्फ्रेंस से   वकीलों और राजनेताओं में खेमा बंदी को बल मिलेगा।
   
           इस प्रेस कॉन्फ्रेंस  से ऐसा सन्देश  जनता में गया कि सुप्रीम कोर्ट में    सी  जे आई  अपने विवेकानुसार  पीठों  का निर्धारण करते हैं। वरिष्ठ जजों को वरीयता नहीं देते जब कि  कार्य संपादन में शक्तियां समान हैं।   

अभिमत 
  प्रेस कॉन्फ्रेंस  करने वाले   माननीय जजों को सुप्रीम कोर्ट  की  गरिमा   बनाये  रखने के लिए  आपस   में बैठ कर  असंतोष के बिंदु को   हल  कर लेना चाहिए। 


रविवार, 7 जनवरी 2018

भीमा-कोरेगांव का उत्सव : एक जातीय उन्माद

Asharfi Lal Mishra











1 जनवरी को  प्रत्येक वर्ष  पुणे के निकट भीमा-कोरेगांव  में होने वाला उत्सव  भारत  के  अतीत  के गौरव की कहानी नहीं  कहता बल्कि अंग्रेजी सेना (ईस्ट इंडिया कंपनी )के  दमन  की  याद दिलाता है।

     भारत  सैकड़ों वर्षों तक  मुस्लिमों और अंग्रेजों की  दासता की बेड़ियों में जकड़ा रहा। इस  अवधि में बहुत से राजाओं या अन्य लोगों ने  विदेशी शासकों की प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से  भारत को गुलाम बनाने में मदद की। ऐसे लोगों  की आज स्वतंत्र भारत में किसी भी रूप में  प्रशंसा नहीं की जा सकती। 

भीमा-कोरेगांव का उत्सव 

१  जनवरी १८८८  को  पुणे के  निकट भीमा-कोरेगांव में  अंग्रेजी सेना और पेशवा बाजीराव द्वितीय के बीच युद्ध हुआ था। इस युद्ध में पेशवा बाजीराव पराजित हुए थे। अंग्रेजी सेना (ईस्ट इंडिया कंपनी ) में बड़ी संख्या  में दलित जाति  के सैनिक सम्मिलित थे।  दलित समुदाय ले लोग  प्रत्येक वर्ष १ जनवरी को  अपनी विजय की स्मृति में उत्सव मानते हैं। [1]

भीमा -कोरेगांव  के उत्सव का औचित्य 

यह उत्सव वास्तव में   ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना  द्वारा  भारतीयों  के  दमन की ओर संकेत  करता  है। ईस्ट इंडिया कंपनी  ने  देश  की    रियासतों  और रजवाड़ों को  अपने अधीन करने के लिए  सभी तरह के हथकंडे  अपनाये।  जिन राजाओं ने या फिर जिन सैनिकों ने  भारत के विरुद्ध युद्ध में भाग  भाग लिया हो उन राजाओं या सैनिकों  की बहादुरी का स्वतंत्र भारत में क्या मूल्य।  विदेशी सेना के  विजयोत्सव का  भारत में होना ही नहीं चाहिए।

अभिमत 

किसी भी रूप में भारतीयों  के दमन की प्रशंसा या उत्सव   का  भारत में निषेध होना चाहिये।  


अनर्गल बयानबाजी से कांग्रेस की प्रतिष्ठा गिरी

 ब्लॉगर : अशर्फी लाल मिश्र अशर्फी लाल मिश्र कहावत है कि हर ऊँचाई के बाद ढलान  होती है । ब्रिटिश हुकूमत को उखाड़ फेंकने में कांग्रेस ने जनता ...