शनिवार, 12 जनवरी 2019

गठबंधन का अर्थ है डूबते को तिनके का सहारा

  Blogger; Asharfi Lal Mishra
अशर्फी लाल मिश्र








Reviewed on 19/01/2019
                            जब तक किसी राजनीतिक दल का  व्यापक जनाधार होता है उसे गठबंधन की आवश्यकता नहीं होती , निर्विघ्न  शासन  चलता  रहता है और  जब अपनी जनोन्मुख  कार्यप्रणाली को त्याग कर  सत्ता के अहंकार में डूबकर   अपना जनाधार खो देता है  तथा सत्ता हाथ से फिसल जाती है तब उसे गठबंधन राजनीति की ओर कदम बढ़ाना पड़ता है। कभी- कभी नवोदित राजनीतिक दाल भी गठबंधन का मार्ग अपनाते हैं।

गठबंधन से लाभ         

       प्रत्येक मान्यता प्राप्त  दल  या   गैर  मान्यता प्राप्त दल की कामना होती कि सत्ता में येन केन प्रकारेण  भागीदारी मिले। छोटे -छोटे राजनीतिक दलों का तब और अधिक महत्व बढ़  जाता है जब कोई भी राजनीतिक दल   लोक सभा या विधान सभा में  सबसे  बड़ा दल होने के बावजूद सरकार बनाने की स्थिति में नहीं होता। ऐसी स्थिति में  छोटे दलों का अति महत्व हो जाता  है।
           
            लोक सभा या  विधान सभा  में स्पष्ट  बहुमत  न मिलने पर   सबसे बड़ा राजनीतिक दल  सरकार बनाने के किये  गठबंधन की सरकार बनाने का   प्रयास  करता है। गठबंधन  में कुछ दल सशर्त  सरकार में सम्मिलित होते हैं और कुछ सरकार से बाहर  रहकर समर्थन देते हैं। गठबंधन की सरकार में  हर दल के हाथ में सरकार का रिमोट कण्ट्रोल रहता है।

गठबंधन से हानि 

         गठबंधन की सरकार में कई दलों का समूह होता है या यों कहें कि सापों का गठवा तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। ऐसी सरकार में  हर राजनीतिक दल अपनी इच्छावों की पूर्ति के लिए सरकार पर दबाव बनाने का प्रयास करता रहता है और यदि सरकार में शामिल या बाहर  से समर्थन देने वाले दलों की इच्छा पूर्ति  नहीं होती तो सरकार से समर्थन वापस लेने  की धमकी भी देते है। दिनांक 31 दिसंबर 2018 को बसपा प्रमुख ने मध्य प्रदेश और राजस्थान की सरकार को धमकी दी कि यदि 2 अप्रैल 2018 को भारत बंद में सम्मिलित बसपा के लोगों से मुकदमे वापस नहीं लिए गये तो समर्थन वापस लेने पर विचार संभव। [a]
               गठबंधन की सरकारों में स्थायित्व की कमी रहती है। भ्रष्टाचार पर लगाम और राष्ट्र का विकास प्रभावित होता है।

गठबंधन आधारित राजनीति  के दुष्परिणाम 

 1.क्षेत्रीय दलों का अभ्युदय।
2. राजनीति में अपराधियों का प्रवेश।
3.भाषा , धर्म और क्षेत्रवाद का राजनीति में खुलकर प्रवेश।
4. सांसदों और विधायकों के  आपराधिक मुकदमें वर्षों तक पेंडिंग या तो जाँच में या फिर न्यायलय में। हालाँकि वर्तमान में अलग से  देश में 12  एम एल ए /एम पी  कोर्ट स्थापित किये गये हैं।
5.अस्थिर सरकारें।
6. न भ्रष्टाचार पर लगाम लगती है और न विकास होता है।
7. राष्ट्रीय एजेण्डा का अभाव।
8 . मध्यावधि चुनाव की  सदैव आशंका।

बसपा  -सपा के  गठबधन  में  रालोद
                      वर्तमान में  भाजपा   के व्यापक  जनाधार  से भयभीत  देश के अधिकांश राज्यों में  गठबंधन की चर्चा हो रही है। छोटे दलों की बात छोड़िये जो अपने अस्तित्व के लिए  गठबंधन की बात सोच सकते हैं या फिर नवोदित राजनीतिक दल। सबसे आश्चर्य की बात यह है कि कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी भी अपने अस्तित्व के लिए व्यापक गठबंधन के लिए उतावली है।
 
                       सत्ता  का प्रलोभन या मोह कहें कि  गठबंधन  करने में पिछले  कड़ुए से कड़ुए या फिर अपमानित हुए अनुभव भी भुलाने पड़ते हैं  इसका जीता जागता  उदाहरण  उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी  और समाजवादी  पार्टी का है जिन्होंने आपस में सीटों का बटवारा कर गठबंधन  के मार्ग  चलने का निश्चय किया। [1]  इस अवसर पर   मायावती  ने अपनी कसक को व्यक्त  करते हुए  लखनऊ गेस्ट हाउस  काण्ड  से ऊपर जनहित को बताया। [2]

                        उत्तर प्रदेश में सपा बसपा के गठबंधन से कांग्रेस को अलग रखा गया लेकिन  रायबरेली और अमेठी सीटों पर चुनाव न लड़ने निश्चय किया गया। इस गठबंधन में  रालोद भी शामिल हो गया है जिसे मात्र ३ सीटों पर ही चुनाव  लड़ने की सहमति बनी। इस गठबंधन से सपा को कुछ रहत मिल सकती है।

                                                                   
                    दिनांक 19 /01 /2019 को कोलकाता में मोदी विरोधी  राजनीतिक दल एवं बीजेपी के असंतुष्ट नेता एक मंच पर पहुंचे। यह रैली पश्चिमी बंगाल की मुख्य मंत्री  ममता बनर्जी ने आयोजित की। यह गठबंधन पूर्व रैली कही जा सकती है। [3] [4]

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